कुओं का खत्म होता इतिहास


नालन्दा का कुंआ
जल ही जीवन है। जल के बिना प्रकृति के साथ जीवन में ऊर्जा का संचार नहीं हो सकता। मानव का विकास वहीं पर ही हुआ, जहाँ पर जल के स्त्रोत थे। विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता मोहन-जोदड़ों का विकास भी सिंधु नदी के किनारे पर हुआ। इसे सिंधु सभ्यता, इण्डस वैली भी कहते हंै। इस प्रकार से विश्व की बस्तियां, अब भी अधिकतर शहर नदियों के किनारे पर ही बसे हुए हैं। मानव जीवन के स्थाई रहने की छोटी इकाई गाँव भी नदियों के किनारों पर बसाये गए।  परन्तु जीवन की अन्य आवश्यकताओं व कमाई स्रोतों की खोज के लिए नदियों से दूर होना पड़ा। मानव ने अपनी आजीविका के लिये नदियों से दूर अपने गाँव व बस्तियों को बसाया व वहाँ अपने स्थाई निवास बना लिए। यह गांव व कस्बे नदियों से दूर होने की वजह से जल संकट से ग्रस्त हो गए। जल के विकल्प को तलाशा गया, जिसमें भूमिगत कुएं खोदे गए जो कि नदियों से दूर बसी मानव सभ्यता के लिए वरदान से बन गए। यहीं से कुएं खोदने का चलन शुरू हुआ। कुओं की खोज व प्रचलन ने मानव को नदियों से दूर कर दिया। मानव ने भूमिगत पानी के लिये कुंओं को खोदने का पैमाना बनाया होगा, जिससे उसे पानी आसानी से उस पैमाने पर प्राप्त हो सके, और मनुष्य इसी आधार पर गाँव व बस्तियों को बसाता चला गया। गांव व बस्तियां की जनसंख्या पर भी कुंओं का स्पष्ट प्रभाव पड़ा। जहाँ पर कुंओं में जल की मात्रा अधिक रही वहां पर बड़े गाँव या बस्ती बसी व जहाँ पर जल की मात्रा कम थी वहां छोटे गांव या टुकड़ों में गांव बसे। बाद में मानव कुएं के जल का उपयोग खेती के लिये करने लगा। कुंए से पानी निकालने के लिए मानव रहट का उपयोग करने लगा। रहट एक ऐसी व्यवस्था थी, जिससे पशुओं द्वारा कुओं से पानी खींचा जाता था। भारत के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में तो आज भी रहट का प्रचलन देखा जा सकता है। वैसे आज के समय में यह व्यवस्था लुप्तप्राय: हो चुकी है। न कुएं रह गए हैं और न ही कुंओं से पानी खींचने का साधन रहट व रहट को चलाने के लिए पशु (बैल)। नदियों के बाद कुएं जल के मुख्य स्त्रोत के साधन कहलाये। अधिकतर कुओं का निर्माण गांव के तालाब के किनारे पर किया जाता था, ताकि कुओं के पानी का पैमाना (लेवल) बना रहे। बिहार की मगध विश्वविद्यालय में कुषाणकालिन पक्के परतदार कुएं का पता चला है। पुरातत्व विभाग के अनुसार यह लगभग 2000 हजार साल पुराना कुआं है। सम्राट अशोक के शिलालेखों पर भी मुख्य मार्गों के किनारों पर कुओं को बनवाने का वर्णन आता है। INDIA LOSING WELLS
भारत वर्ष में कुओं को अलग-अलग प्रकार से बनाया व संजोया गया है। कुओं को गोलाई में परतदार पक्की ईंटों से बनाया जाता है, ताकि आसपास की मिट्टी का कटाव उसमें ना हो सके। इससे कुएं की मियाद (जीवनकाल) भी अधिक समय तक बनी रहे। अधिकतर कुओं का भूमिगत जल का पैमाना 130 फुट तक का बताया जाता है, यह इससे भी अधिक हो सकता है। इतनी गहराई से कुओं से पानी निकालने के लिये एक साथ पाँच से सात महिलाओं को रस्सी को खींचना पड़ता है। कुओं को गांव के विकास के रूप में जाना जाने लगा, क्योंकि अधिकांश कुएं गाँव से बाहर ही बनाये जाते थे और बाहरी व्यक्ति अपनी यात्रा के दौरान यह अनुमान लगा सकता था कि इस गाँव का विकास कितना है। साथ ही उस गाँव की महिलाओं के रहन-सहन व पहनावे का भी पता चलता था। बाद में समय के बदलाव के साथ ही कुओं और उसके जल को अधिक सुरक्षित बनाने के लिए किनारों पर चारमीनारें बनाई जाने लगी, तो कहीं पर इन मीनारों के ऊपर नक्कासी, लोहे की छड़ी, कुओं तक का साफ-सुधरा रास्ता व पानी के साधन रखने के लिये जगह, कुएं के उपरी भाग में छतरी भी बनाई गई। कुओं पर पानी लेने के लिए महिलायें पैरो में पाजेब, झलकड़े डाल कर समूह में जाती थी। महिलाएं लोक-गीतों के माध्यम से वीरता, त्यौहारों, सामाजिक कुरीतियों पर कटाक्ष और प्रकृति के अनुसार गाने गाती चलती थी। देश में आज भी ग्रामीण इलाकों में बहुत से कुंए हैं। कुछ सूख चुके हैं, जर्जर हो चुके हैं तो कुछ में पानी तो है, परन्तु प्रचलन में नहीं हैं। जीन्द में भी कई ऐतिहासिक कुएं हैं, जिनमें कुछ कुओं को आज संरक्षण की जरूरत है। जुलाना के लजवाना गांव में 1854 से पहले बने कुओं के किनारे बैठने के लिये चारों और से खुले कमरों का निर्माण किया जाता था। जीन्द के गांव पांडू-पिंडारा के तीर्थ किनारे रियासत जीन्द के राजा ने कुएं का निर्माण करवाया था, इस कुएं के ऊपर राजा ने चार पिलरों के ऊपर छत का निर्माण करवाया था, ताकि कोई भी गंदी वस्तु कुएं में न जा सके। गांव रामराय भैण के गोविन्द कुंड के पास ही एक पुराना कुआं है। किवदंती है कि सफींदो के सेठ ने अपने लड़के का रिश्ता गांव मिर्चपुर में की थी। जब वह लड़के की बारात लेकर गया तो रास्ते में जहाँ पर भी बारात का पड़ाव हुआ, वहीं पर सेठ ने कुआं बनवा दिया था, जो आज अपनी जर्जर अवस्था में विराजमान है। जीवन के अति महत्व की यह धरोहर अब लुप्त होती जा रही है। गाँव के विकास की पहचान बताने वाले कुछ कुएं आज तालाबों के किनारे जर्जर अवस्था देखे जा सकते है। यह कुंए आज भी अपनी प्राचीन इतिहास को संजोए हुए है। 
भले ही आज कुंओं का प्रयोग जल प्राप्त करने के लिए नहीं कर रहे हों, परन्तु अब भी कुंआ पूजन के रूप में अपनी सांस्कृतिक विरासत को संभाले हुए हैं। पुरातन समय में लड़के के जन्म पर कुंआ पूजन होता था। आज के समय में लड़कियों को बचाने व भू्रण हत्या रोकने जैसे संदेश भी अब कुंआ पूजन से जुड़ गए हैं। अब लड़कियों के जन्म पर भी कुंआं पूजने की प्रचलन बढ़ रहा है। यह कुआं पूजन कन्या भू्रण हत्या रोकने के लिए अच्छा संदेश देने का काम कर रहा है। आज देश में लिंगानुपात की बहुत बड़ी समस्या पैदा हो गई, जिससे समाज में कई तरह की बुराईयां बढ़ रही हैं। यह लगातार देश से कम हो रही बेटी को बचाने में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं। इस प्रकार से बेटी के साथ लुप्त होते कुओं की भी पहचान पुन: बनी है। जल है तो कल है। सभी कुंओं को बचाना अगर संभव न हो तो कुछ कुंओं को तो अवश्य ही संरक्षण किया जाना चाहिए।                                                                     
 जितेन्द्र अहलावत
700/5, राजेन्द्र नगर, पटियाला चौक, जींद, हरियाणा।
मो. 92554-74008 

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