हरियाणा का अनोखा क्रान्तिकारी गांव : लजवाना


हरियाणा के इतिहास को जब-जब खंगाला जाएगा, उसमें जीन्द के इतिहास को अवश्य विशेष स्थान मिलेगा। यह क्षेत्र न केवल महाभारत की अड़तालीस कोस की परिधि में आता है, बल्कि यह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप में बड़ा ही महत्व रखता है। जीन्द के आसपास के गांवों में वैसे तो छोटे बड़े कई तीर्थ स्थल है, जिनका अपना ऐतिहासिक महत्व है। ये ऐतिहासिक स्थल अपनी कई गाथाएं समेटे हुए है। प्राचीन काल से ही भारत की भूमि पर नारी का हमेशा मान-सम्मान रहा है। यही संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे हैं। नारी के प्रति अभद्र शब्दों ने लजवानावासियों को संघर्ष करने के लिए एकता के सूत्र में बांधकर फुलकियां स्टेट की रियासत जीन्द, नाभा, पटियाला व अंग्रेजी सेना से गुलामी की जंजीरों को तोड़ डालने का जज्बा उत्पन्न किया। इस संघर्ष में नारी की दोहरी भूमिका सामने आई। नारी ने जहां घर-आंगन को संभाला वहीं लड़ाई के मोर्चो पर डटकर दुश्मन को मौत के घाट भी उतार दिया। इन गांवों के वीरता के गीत, किस्से, भजन आज भी वीरता का जज्बा जगाते हैं।

तीन भाषाओं (पंजाबी, हिन्दी व अंग्रेजी) में खुदा 
हुआ जफरगढ़ नाम का पत्थर




इसी पृष्ठभूमि में एक गांव लजवाना का भी जिक्र आता है। बात उस सयम की है जब देश कि आजादी के लिए हर क्षेत्र से आवाज बुलंद हो रही थी। सैकड़ों वर्षों की गुलामी ने आम जनता का जीना दूर्भर कर दिया था, इन गुलामी की जंजीरो को हर कोई तोड़ डालना चाहता था। परन्तु एकता की कमी के कारण कामयाबी नहीं मिल सकी। परन्तु प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 से तीन वर्ष पहले 1854 में गांव लजवाना के ग्रामीणों ने एकता व भाई-चारे को बना कर गुलामी की जंजीरो को तोड़ डाला था।
जीन्द से जुलाना-गोहाना मार्ग पर स्थित गांव लजवाना जो कि लगभग 15 हजार से अधिक जनसंख्याँ तथा ढाई बावनी (लगभग एक लाख तीस हजार बीघे से अधिक) की कृषि भूमि (सेंडी, कालर, रेही और सिरोजन) जिसमें गेंहू, चना, ज्वार, सरसों, कपास, बाजरा व अन्य खेती की जाती थी। यहां पर सामान्य वर्षा 515 एमएम तथा भूमिगत पानी का स्तर न्यूनतम 5 से 10 एमबीजीएल के लगभग है तथा वन क्षेत्र की संख्या भी कम नहीं थी। पशुओं में गाय, भैंस, बैल, भेड़-बकरी,ऊंट व घोड़े थे। सभी जातियाँ अपने-अपने काम में निपुण व लगनशील थी। गांव में ही हाट (बाजार) था जिसमें जरूरत कि हर वस्तु मिलती थी। हाट (बाजार) के खंडहर आज भी मौजूद हैं। ग्रामीणों ने पीने के पानी के लिए पक्के कुंए जिनके साथ में छाया के लिए पक्के हवादार कमरों का निर्माण, जिनका वजूद आज भी मौजूद है और पशुओं के लिए तालाब व पक्के चार घाट बनवाए हुए थे, जिनमें से दो घाट अभी भी मौजूद है।


प्राचीन बने हुए पक्के कुंए

जीन्द सम्राट शेरशाह सूरी के अधीन हिसार सरकार का परगना था। उसने अपने प्रदेश को 66 सरकारों में बांट रखा था। इस क्षेत्र में सम्राट शेरशाह सूरी (1540-45) के प्रशासनिक व भूमि सम्बन्धित कार्यों को मुगल सम्राट अकबर के समय राजा टोडरमल व मुजफ्फर खां द्वारा अपनाया गया। भूमि बन्दोबस्त जिसमें सरकंडों द्वारा जमीन की पैमाइस कर 3600 वर्ग गज के बीघे बनाये गये थे और किसान को दस साल की औसत के आधार पर नम्बरदारों के द्वारा फसल का एक तिहाई,राजा को भूमि लगान के रूप में देना पड़ता था। भूमिकर की इस प्रणाली को जब्ती प्रणाली या आईने दस साल कहा जाता था।
सन 1853-54 में भंयकर अकाल ग्रस्त में रियासत जीन्द का लजवाना ग्राम समूह भी सम्मिलित था। भंयकर अकाल के कारण खेतों में अनाज होना तो दूर की बात, लोगों के खाने व पशुओं के घास के लिए जीना दूर्भर हो रहा था। ऐसे में लगान देना बहुत मुश्किल था। अन्य ग्राम समूहों ने रियासत के राजा सरूप सिंह से माल वसूली के लिए प्रार्थना की कि आप पहले गांव लजवाना से माल वसूली की शुरूआत की जाए क्योंकि गांव लजवाना धन-धान्य से संपन्न है। राजा सरूप सिंह ने पहले लजवाना से माल वसूली के लिए गांव लजवाना के समीप गांव शामलो में रियासत के तहसीलदार कुँवर सैन ने अपना खुला दरबार लगाया। उसमें समीप के ग्रामीणों ने तहसीलदार से अपनी-अपनी समस्याओं के बारे में बताया तो इसी बीच गांव लजवाना के नम्बरदार निगाईयां व अन्य ने माल वसूली (लगान माफ)करने के लिए निवेदन किया। रियासत के तहसीलदार ने खुले दरबार में बहन-बेटियों के बारे अभद्र शब्द कहते हुऐ कहा कि कल लजवाना ही आऊँगा।


हीरामुनि का वह मंदिर व तालाब जहां पर भूरा व निगाईयां ने 
तहसीलदार से बदला लेने की कसम खाई थी

खुले दरबार से उठ कर नम्बरदार निगाईयां व अन्य वापिस लजवाना गांव की ओर चल दिये। जब वो गांव के समीप पहुँचे तो गांव के दूसरे नम्बरदार भूरा जो कि एक-दूसरे से जानी-दुश्मनी रखते थे, ने निगाईयां व अन्य को चुप-चाप जाते देखा तो उससे भी रहा नहीं गया। दूसरी ओर निगाईयां से भी खुले दरबार कि घटना बताये बिना रहा नहीं गया। इस प्रकार दोनों जानी दुश्मन नम्बरदार भूरा व निगाईयां तालाब के समीप हीरा मुनि बाबा के मंदिर (यह मंदिर अभी भी तालाब किनारे स्थित है) में पूरे घटनाक्रम की चर्चा की। दोनों नम्बरदारों ने पास के तालाब से अपने हाथों में पानी लेकर अपनी जानी-दुश्मनी भुला कर तहसीलदार के खात्मे की योजना को अमलीजामा पहनाने की कसम खाई। जब दोनों कसम खाकर गांव की ओर हाथ में हाथ डालकर चले तो कहते हैं कि पल्ली (पतराम) नामक सेठ ने अपने मकान की छत से दोनों को आते देखा तो बरबस ही कह उठा की अब खैर कोन्या। इस पर गांव में यह कहावत प्रचलित है कि ''रै भाई पल्ली रै भाई पल्ली, तेरे तै या बात ना झल्ली।''

वह चौपाल (नवनिर्मित) जहाँ पर तहसीदार कुंवरसेन का 
सर धड़ से अलग किया गया।

पूरे गांव में घटना और योजना को बताकर तहसीलदार के  खात्मे कि बात कही। अगले दिन जब रियासत का तहसीलदार कुँवर सैन गांव लजवाना की चौपाल (जिसे अब खूनी चौपाल भी कहते हैं) में पहुँचा तो पहले से योजनानुसार तहसीलदार कुँवर सैन पर जान लेवा हमला कर दिया गया। तहसीलदार जान बचा कर खिड़की से भागा तो घात लगाए ग्रामीणों ने सिर को धड़ से अलग कर गोबर के बिटोड़ों में उसे तथा उस क्षेत्र के लाये जमीनी व माल वसूली कागजात को भी जला दिया। रियासती सैनिकों को भगा दिया। यह घटना आग की तरह पूरे क्षेत्र में फैल गई। जब रियासत के राजा को इस घटना के बारे में पूरी जानकारी मिली तो उसने गांव के नम्बरदार भूरा व निगाईयां के पास संदेश भिजवाया कि वह दरबार में पेश हो। परन्तु ग्रामीणों की एकता ने भूरा व निगाईयां को दरबार में पेश करनेे से इंकार कर दिया। राजा सरूप सिंह ने अपनी सेना की टुकड़ी को आदेश दिया कि भूरा व निगाईयां को गिरफ्तार करके गांव लजवाना को तहस-नहस कर, उसका मलबा उठाकर जीन्द लाया जाए। परन्तु ग्रामीणों से उस सेना की टुकड़ी को मुंह की खानी पड़ी। 
इसका कारण यह भी बताया जाता है कि रियासत सेना के मेजर अली का पारिवारिक संबंध इस गांव लजवाना से था। कुछ का कहना था कि उस समय मेजर अली की गर्भवती पत्नी लजवाना उसके मामा के घर पर आई हुई थी। इसलिए उस समय तोप के गोलों को इधर-उधर ही दागा गया, जिससें इंसानी जान-माल की हानि ना हो। इसी बीच गांव के चारों ओर गहरी खाइयां खोद दी गई और मिट्टी की ऊंची-ऊंची पालें (दिवारें) बांध दी गई।
1854 में संयुक्त रियासती सेना व अंग्रेज सेना के द्वारा 
तहस-नहस किए गए गांव लजवाना के खण्डहर

इस लड़ाई में ग्रामीण महिलाओं ने भी अपनी भरपूर भूमिका निभाई। महिलाओं ने भोजन के इंतजाम में अहम भूमिका निभाई तथा युद्ध के मोर्चों पर डट कर सैनिकों को पछाड़ा। गांव की युवा लड़की भोली को जब यह पता चला कि उसका भाई युद्ध में मारा गया तो उसने पाल (दीवार) से बाहर निकलकर रियासत सेना के लगभग सोलह सैनिकों को काट कर मार गिराया। जिससे दुश्मन की फौज में भगदड़ मच गई। इसलिए आज भी यह दोबोला प्रचलित है कि 'सेर बाजरा झोली में, सोलह काटे भोली ने'। उस समय महिलाओं पर सामाजिक प्रतिबंध होते हुए भी महिलाओं ने युद्ध में अपने कदमों को पीछे सरकने नहीं दिया। इस प्रकार जब गांव की एकता के आगे राजा सरूप सिंह की सैनिक शक्ति विवश नजर आई तो उसने फुलकियां स्टेट की रियासत नाभा व पटियाला से सैनिक सहायता मांगी। तीनों रियासतों के सैनिक हमले की भनक लगते ही लजवानावासियों ने भी पास के गांव से सैनिक भर्ती शुरू कर दी और दूसरे गांव वालों से सहायता के लिए निवेदन भी किया। पास के गांव वालों ने अपनी-अपनी योजनानुसार सैनिक, गोला-बारूद, गन्धक, गंडासे, रसद आदि से मदद की। यह युद्ध कई माह तक चलता रहा। तीनों रियासतों के काबू से बाहर की बात होते देख रियासत के राजा सरूप सिंह ने अंग्रेजी सरकार से सहायता मांगी। अंग्रेजों ने राजा सरूप सिंह की सहायता के लिए तुरन्त सेना भेजने का ऐलान कर दिया। तीनों रियासती सेनाओं के साथ अंग्रेजी सेना मिलने से उनकी ताकत बढ़ गई व अंग्रेजी सेना तोप के गोलों से गांव लजवाना को तहस-नहस करने लगे। गांव लजवाना को संयुक्त रियासती व अंग्रेज सेना के गोला-बारूद ने पूरे गांव को उजाड़ दिया। गांव के लोगों ने जान बचाने के लिए खेतों में शरण ली, तो वहां भी रियासती व अंग्रेजी चौकियां स्थापित कर दी गई। ग्रामीणों को गम्भीर यातनाएं दी गई। ग्रामीणों का यह संघर्ष छ: माह तक चला।

लजवाना गांव की हवेलियों के मलबे से बनाया गया जफरगढ़ में किला

ऐसी भी किंदवती है कि कुछ युवा भागकर मेरठ-अम्बाला छावनियों में जाकर सेना में भर्ती हो गए। जब 1857 प्रथम स्वंतत्रता संग्राम का बिगुल बजा तो इन वीर बहादुरों ने सिर पर कफन बांधने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। गांव के नम्बरदार भूरा व निगाईयां को पकड़ कर संगरूर ले जाया गया और रोंगटे खड़ी कर देने वाली गंभीर यातनाएं देते हुए मौत के घाट उतार दिया। आज भी खुदाई में तोपों के गोले व गोलियां मिल जाती हैं। ग्रामीण प्रेम बाल्मिकी ने बताया कि गांव मेहरड़ा रोड़ पर संन्यासी वाला कुंआ के पास जो मिट्टी से भरा हुआ था, पास के खेत में जब पानी दिया जा रहा था तो सारा पानी बंद कुंए में जाने लगा और थोड़ी ही देर में वहां एक गहरा गड्ढा बन गया। जब उस गड्ढे की खुदाई की गई तो उसमें से मानव खोपड़ी व हड्डियां तथा जंग लगे हथियार मिले। ग्रामीणों ने तुरन्त इस गड्ढे को उसी अवस्था में पुन: बंद कर दिया। ग्रामीण महिलाएं आज भी लजवाने के संघर्ष की इस दर्दनाक घटना को याद कर गीत गाती हैं कि 'लजवाने तेरा नाश जाईयो, तैने पुत बड़े खपाये'।
राजा सरूप सिंह के हुकम अनुसार गांव लजवाना की हवेलियों का मलबा जीन्द लाया गया। अच्छी व साफईंटों से दीवानखाना बनाया गया और दूसरी ईंटों व मलबे से नजदीक के गांव जफरगढ़ में माल वसूली व सैनिक टुकड़ी के लिए किले का निर्माण करवाया गया जिस कारण जफरगढ़ से किला जफरगढ़ हो गया। आज भी यह किला जीन्द-रोहतक मुख्य मार्ग पर खण्डहर अवस्था में है। गांव लजवाना के तहस-नहस होने के कारण, इससे छ: गांव नन्दगढ़, सिरसा खेड़ी, मेहरड़ा, छान, नौवा, अकालगढ़ अस्तित्व में आए, जिन्हें सात लजवाने भी कहते हैं।

लजवाना का युद्ध जीतने के बाद राजा सरूप सिंह द्वारा 
बनवाया गया राज राजेश्वरी मंदिर

गांव लजवाना का छ: महीने में युद्ध जीतने से पहले, राजा सरूप सिंह ने चैतंग नहर, हांसी-यमुना ब्रांच नहर के किनारे माता जयन्ती देवी मन्दिर में प्रण किया कि अगर मैं लजवाना का युद्ध जीतता हूँ तो इस मन्दिर परिसर में एक और माँ देवी (इस मंदिर को राज राजेश्वरी और सरकारी मंदिर भी कहते हैं) के मन्दिर का निर्माण करवाऊंगा। राजा ने सोने व चांदी के छत्र व शृंगार का सामान भी चढ़ाया।  युद्ध जीतने के बाद माँ देवी के मन्दिर का निर्माण किया गया, जो अभी भी अस्तित्व में है। 

इतिहासकार जितेन्द्र अहलावत, जीन्द

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