महान क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल : विप्लव-आंदोलन



प्रिय पाठकवृन्द! देश धर्म की सुख-समृद्धि के लिए त्याग करने व बलिदान देने वाले लोग थोडे ही होते हैं। बहुत से तो उनके कार्यो की आलोचना करने वाले होते हैं।  आलोचना की दिशा सकारात्मक भी होतीहै और नकारात्मक भी। नकारात्मक आलोचना हमेशा ही राष्ट्र की प्रगति में बाधक रही है। आजादी के 65 र्वा बाद भी हम अपने बलिदानी देशभक्तों का सही मूल्यांकन नहीं कर पाये, जिनके त्याग व बलिदान के परिणामस्वरूप आज हम स्वतंत्र वायु में संास ले रहे हैं। अभी भी हमारे इस अभागे देश के नेता, राजनीति-विशारद विलक्षण पंडित और इतिहास नेता कहलाने वाले लोग भगतसिंह चन्द्र शेखर आजाद जैसे देशभक्तों को आतंकवादी और वीर सावरकर को कायर कहकर उनके बलिदानों की उपेक्षा करने की धृष्टता करते हैं। ऐसे लोगों के विषय में महान क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल (जिनको भगतसिंह ने आदरणीय कामरेड लिखा है) ने ‘बन्दी जीवन’ में लिखा है-
‘‘ सभी समाजों में, सभी समयों में विप्लवी लोगों पर समाज के विज्ञ और अभिज्ञ लोग हँसते और लांछन लगाते रहे हैं। इसका कारण यही है कि प्रायः सभी देशों से सभी विप्लवियों की पहली चेष्टाएँ व्यर्थ हुई, और समाज के विज्ञ और अभिज्ञ लोग इसी व्यर्थता के माप से ही सब विषयों पर विचार करते रहे हैं। उसी नियम से भारत के विप्लववादी भी विज्ञ और अभिज्ञ लोगों के मत में भ्रांत-पथ के यात्री हैं। और इन समालोचकों में से जो बड़े ही प्रवीण और होशियार हैं वे इन विप्लवियों को ‘इडियट (बुद्धु, पागल) कहने में भी संकोच नहीं करते।’
‘‘विप्लवियों और समालोचकों में भेद यही है कि विप्लवी लोगों को अपने आदर्श पर अटूट श्रद्धा है, इसीलिए उन्होंने अद्भुत निष्ठा के साथ अपने आदर्श कीओर जाने वाले पथ पर चलते हुए जीवन बिताया है, और इन समालोचक लोगों ने आराम-चैकी पर बैठकर समालोचना करने को ही जीवन का पेशा बना डाला है और बहुतों का तो यह समालोचना करना ही जीविका अर्जन करने का मुख्य अवलम्ब हो गया है।
इस सबके अलावा विप्लवियों में और इन सारे समालोचकों में एक और भी बड़ा भेद है, विप्लवियों के नजदीक जो चीज़ थ्ंपजी (श्रद्धा ) है, समालोचकों के लिए वह केवल व्चपदपवद (सम्मति है) है। किन्तु जो लोग इतिहास-स्रष्टा के आसन पर बैठते हैं, वे इस ‘सम्मति’ की परवाह नहीं करते; वे निष्ठावान और श्रद्धा -सम्पन्न व्यक्ति होते हैं। विफलता वे चिरस्मरणीय हो जाते है;।’’
वीर सावरकर के तथाकथिप माफीनामे की आड़ में उनके बलिदान को हेय सिद्ध करने वाले क्यों भूल जाते हैं कि उन्हीं के समकालीन एक ऐसा भी क्रांतिवीर था, जो लगभग चार वर्ष उस नरक (अंडमान जेल) की अमानवीय यातनाएँ सहकर मुक्त होने के बाद भी पुनः उसी पथ पर चलकर आजीवन कारावास भोगने अंडेमान जा पहुँचा और लगभग दस वर्ष वहाँ बिताने के बाद भी जिसे ब्रिटिश ताकत क्रांति भी अपने आदर्श के लिए जुझते हुए ही हुआ पर इस देश केे आलोचकों के लिए वह क्रांतिवीर शचीन्द्रनाथ सान्याल भी आदरणीय नहीं हुआ क्योंकि उसने कम्पूनिस्ट विचारधारा के नास्तिकवाद और भौतिकवाद केे सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया; वह राष्ट्रवाद को छोड़कर अन्तर्राष्ट्रवादी नहीं बना; उसने रूस की क्रांति की सफलता से आश्चर्यचकित होकर लेनिन व माक्र्स के गीत नहीं गाये; आधुनिक कम्युनिस्टों की तरह वीर सावरकर और भाई परमानन्द को कायर कहकर उपेक्षित नहीं माना, अपितु उनको और उन जेसे सैकड़ों देशभक्तों को उस नरक से निकालने के लिए यभासम्भव प्रयत्न किया।
पहली बार काला पानी से विदाई के विषय में वे ‘बंदी जीवन’ में लिखते हैं- ‘‘जहाज की इन्तजारी करते-करते वे बीस दिन भी बीत गए। जहाज में चढ़ने के दिन जितने करीब आए, उतने ही एक आनन्द के साथ एक उतनी ही काली छाया भी मन को घेरे रहती थी। हर घड़ी मेेरे मन में यही ख्याल बना रहता था कि कैसे में अपने साथियों को इस संकटपूर्ण स्थान में असहाय अवस्था में छोडकर जाऊँ! सबसे मैंने यह वादा किया कि देश में पहुँचते ही उन लोगों को छुड़ाने के लिए मैं भरसक प्रयत्न करूँगा। मानो, मेरे पास यही एक बात थी जिससे मैं अपने साथियों को सांत्वना दे सकता था।’’
भारत की भूमि पर कदम रखते ही (फरवरी 1920 के अंत में) शचीन्द्रनाथ सान्याल कलकत्ता के मिटिया बुर्ज के थाने से कालीघाट में रहने वालेे कलकत्ता हाईकोर्ट के प्रमुख वकील बी0सी0 चटर्जी (सुरेन्द्रनाथ बनजी के दामाद) से  मिलने चले गये, क्योंकि उन्हें लाल दिग्घी थाने जाने में अभी दो-तीन घंटे प्रतीक्षा करनी थी। बी0सी0 चटर्जी ने उन्हें उनके द्वारा अंडेमान से लिखी वह चिट्ठी दिखाई, जिसमें उन्होंने लिखा था कि यदि ब्रिटिश सरकार भारतवासियों को यथार्थ में यह मौका देती है कि हम अपने देश की भलाई के लिए जो ठीक समझें उसे कर सकंे तो गुप्त षड्यन्त्र के द्वारा खून-खराबी के रास्ते से आग को लेकर हम खिलवाड़ क्यों करें। इसी चिट्ठी दिखाकर चटर्जी साहब बोले- ‘‘अब गुप्त षड्यंत्र का रास्ता त्याग दो, इसी आशा से और इसी विश्वास से सरकार ने तुम्हें छोड़ दिया है।’’
यह सुनकर शचीन्द्रनाथ बोले-‘‘ विनायक दामोदर सावरकर ने भी तो अपनी चिट्ठी में ऐसी ही भावना प्रकट की थी जैसी के मैंने की है तो फिर सावरकर को क्यों नही छोड़ गया? मैं तो यह समझता हूँ कि मेरे छूटने और सावरकर जी के न छूटने में दो बाते हैं। एक तो यह कि बंगाल के जनमत ने मेरे जैसे राजनीतिक बन्दियों को छुडाने के लिए प्रबल आग्रह किया था। राजबन्दियों की रिहाई के मूल में यही बात बहुत बड़ी थी। लेकिन महाराष्ट्र में उतना तीव्र आंदोलन नहीं हुआ जैसा कि बंगाल में हुआ।
दूसरी बात सावरकर जी के न छूटने में यह थी कि सावरकर जी और उनके दो चार साथियों की गिरफतारी के बाद महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आंदोलन समाप्त-सा हो गया था। इसलिए सरकार को यह डर था कि यदि सावरकर इत्यादि को छोड दिया जाए तो ऐसा नहीं कि फिर महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आंदोलन प्रारंभ हो जाए। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी थी की सावरकर जी के द्वारा इंग्लैण्ड में एक अंग्रेज की हत्या हुई थी। इस पर ब्रिटिश सरकार को विशेष क्रोध था।’’
इस पर चटर्जी साहब बोले कि बात असल में यह है कि मरहठों के उपर अंग्रेजों का बिल्कुल विश्वास नहीं है। बंगाली जैसा कहेंगे वैसा करेंगे, लेकिन मरहठे ऐसा कभी नहीं कर सकते। सान्याल ने कुछ लज्जा महसूस की और चटर्जी के ब्रिटिश-विश्वास पर हँसे।
बनारस पहुँचकर एक दो घंटे बाद ही मिलने आये साथी जितेन्द्रनाथ मुकर्जी से सान्याल ने अंडेमान की स्थिति बताई कि कैसे वहाँ पर दुःखी राजबनदी पड़े-पड़े सड़ रह हैं, कैसे भाई परमानन्द कोठरी में एकाएक बन्द कर दिऐ गए हैं। भारत भूमि से नितान्त विच्छिन्न होने के कारण अण्डेमान टापू से दर्द की कहानी भारत पहुँच नही पाती है। राजबन्दियों की मुक्ति के लिए कैसे, क्या किया जाए? मुझे मालवीय जी (मदन मोहन) से मिलना है। यह कहकर वे हिन्दु विद्यालय में जा पहुँचे। मालवीय जी ने सान्याल की सब बातें सुन लीं और आखिर में कहा कि मुझे लिखकर रजिस्ट्री पत्र द्वारा सब बातें सुचित करो। सान्याल ने गोरखपुर जार वैसा ही किया। (वे बनारस में दो दिन ही ठहरे, फिर गोरखपुर चले गये, क्योंकि उनका बनारस का मकान उनके कालापानी सजा के साथ जब्त कर लिया गया था और उनके भाई व माँ गोरखपुर में उनके मामा के पास रह रहे थे) पत्र प्राप्ति की रशीद तो उन्हें मिली। लेकिन मालवीय जी ने राजनीतिक बन्दियों की मुक्ति के लिए एक आवाज भी नहीं उठाई।
उस समय के उदीयमान नेता जवाहरलाल नेहरू के विषय में सुनकर सान्याल उनके पास गये और राजनैतिक बन्दियों के विषय में और विशेषकर काले पानी में स्थित घोर दुर्दिन में पड़े हुए बहुत-से लम्बी सजा पाये हुए राजबन्दियों के प्रति जवाहर लाल जी की दृष्अि आकर्षित की। जवाहर लाल जी सब बातें सुनकर यह कह उठे-‘‘ हम लोग तो स्वंय ही जेल जाने का इन्तजाम कर रहे हैं और आप दूसरों को छुडाने की बातें कर रहे हैं।’’ सान्याल उनका मुँह ताकते रह गये और सोचने लगे कि मैं इनसे और क्या कहूँ।
सितम्बर 1920 में कलकत्ता में स्पेशल कांफ्रेंस हुई। वहाँ से भी निराश होकर सान्याल अपने दूसरे मुक्त राजबन्दियों को साथ लेकर लाला लाजपत राय के पास गये। उन्हें आॅल इन्डिया पाॅलिटिकल सफरर्स कांफ्रंेस में सभापति बनने के लिए मना लिया। इसी कांफ्रेंस में मालवीय जी ने जो वक्तृता दी उससे क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोग बहुत असंतुष्ट हो गये। इसके प्रत्युत्तर में कलकत्ता के वकील बी0सी0 चटर्जी, जे0एन0 राय आदि ने मालवीय जी को कुछ बातें सुनाई। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने जो मर्मस्पर्शी और ओजस्विनी वक्तृता दी, उसकी तुलना नहीं की जा सकती। मालवीय जी लज्जित हो गये। लाला लाजपत राय ने सभापति के आसन से यहाँ तक भी कह डाला कि इन राजबन्दियों में ऐसे आदमी भी हैं जिनके जूते की फीते खोलने लायक यहाँ के लाट साहब भी नहीं।
उसी साल नागपुर मेें कांफ्रेंस हुई और सान्याल वहाँ पहुँच गये और विपिन चन्द्रपाल जी से बहुत अनुरोध किया कि हमें राजनीतिक बन्दियों को छुडाने के लिए कुछ तो करना चाहिए। उनके कहने पर विपिन चन्द्र पाल ने एक प्रस्ताव तैयार किया और उसे विषय निर्वाचिनी समिति से पास करवा लिया।

ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने ही जिसे चाहा, उसे छोड़ा। महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन के कारण भारत के राजबन्दियों का प्रश्न दब-सा गया। भारत के राजनीतिक वातावरण में स्वाधीनता के प्रश्न ने अभी भारतीयों के हृदय जरा भी बैचेन नहीं किया था। यही कारण था कि जिन लोगों ने भारतवर्ष को स्वाधीन करने के लिए अपने जीवन को निछावर कर दिया था उसके लिए भारतवासी एक प्रकार से उदासीन थे।’’ और इसका कारण बताते हुए लिखा-
‘‘तिलक, अरविन्द, लाजपत और विपिनचन्द्र के नेतृत्व में भारत का जन-आंदोलन विप्लव के मार्ग में क्रमशः आगे बढ़ रहा था कि इतने में अरविन्द राजनीतिक क्षेत्र से अलग हो गए। तिलक छः साल के लिए जेल में बन्द पड़े रहे, लाजपत भारत के बाहर चले गए, विपिनचन्द्र दुर्बल पड़ गए। ऐसी अवस्था में महात्मा जी राजनीति के क्षेत्र में अवतीर्ण हुए।’’
‘‘विप्लव-आंदोलन में भाग लेने का अर्थ होता है फाँसी जाना या जन्म-भर के लिए काले पानी के टापू मेें जिन्दा दफनाये जाने की तरह अदृश्य हो जाना। इतना त्याग और इतनी कठिनाई को सहने के लिए अधिक आदमी नहीं मिल सकते। लेकिन महात्मा जी के आंदोलन में भाग लेने से थोड़ा त्याग और थोड़ी मुसीबत सहने से ही काम चल जा सकता है। इसलिए महात्मा जी के आंदोलन में सहस्त्रों की संख्या में भारतवासियों ने भाग लिया; लेकिन महात्मा जी के कार्यक्रम अनुसार भारतवर्ष को किस प्रकार से पूर्ण स्वतंत्रता मिल सकतीहै, यह बात मेरे जैसे नवयुवकों की समझ में नही आती थी। सहस्त्रों की संख्या में जेल जाने ही से किस प्रकार से राजशक्ति प्रजा के हाथ में आ जायेगी, यह बात हम लोगों की समझ में नहीं आती थी। इसलिए मेरे जैसे नवयुवकों ने यह मान लिया था कि सशस्त्र क्रांति की तैयारी तो करनी ही पडे़गी।’’
ऐसा दृढ़ निश्चय करके क्रांतिवीर ने देश के लिए घर फूँक तमाशा देखने वाले देशभक्त वीरों का आह्वान करते हुए कवि के शब्दों में कहा-
देश प्रेम का मूल्य प्राण है, देखें कौन चुकाता है।
देखें कौन सुमन-शयया तज, कंटक-पथ अपनाता है।।
सकल मोह-ममता को तजकर, माता जिसको प्यारी हो,
शत्रु का हिय छेदन हेतु, जिसकी तेज कटारी हो,
मातृभूमि के लिए राज्य तज, जो बना चुका भिखारी हो,
अपने तन मन धन जीवन का स्वयं पूर्ण अधिकारी हो।
आज उसी के लिए संघ ये, भुज अपने फैलाता है।।1।।
कष्ट-कंटको में पड़ करके, जीवन-पट झीने होंगे,
अत्याचारों की आँधी से, कोटि सुमन छीने होंगे,
एक ओर संगीने होंगी, एक ओर सीने होंगे।
वही वीर अब बढे़ जिसे, हँस हँसकर मरना आता है।।2।।
क्रांतिवीर के इस आह्वान को सुनकर परवाने दीप-शिखा पर कुर्बान होने चले आये। इन्हीें के कहने से भगतसिंह घर छोड़कर कानपुर चले आये; फतेहगढ़ के आर्गनाइज़र श्री छेदालाल जी अपनी नौकरी से इस्तीफा देकर इलाहाबाद चले आये; श्री बनवारी लाल भी अपना घर-बार छोड़कर श्री छेदालाल जी के साथ रहने लगे। श्री महावीर त्यागी, रामप्रसाद बिस्मिल, श्री अशफाक उल्ला, जयचन्द्र विद्यालंकार, चन्द्रशेखर आजाद, राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्नी लाल जी अवस्थी आदि वीर क्रांति के महासमुद्र में कूद पड़े और उस समय उत्तर भारत का सबसे बड़ा क्रांतिकारी दल खड़ा हो गया, जिसने अपने त्याग और बलिदान से भारत के स्वतंत्रता संग्राम में विशेष भूमिका निभाई, जिसे गाँधीवाद व समाजवाद की मिश्रित विचारधारा के पोषक नेताओं ने विस्मृति के गर्त में दबा दिया, पर दीपक तो अंधेरे में ही चमकता है।
वो जिसमें लौ है विरोधों में और चमकेगा
किसी दीये पे अंधेरा उछाल कर देखो।
तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी,
किसी के पाँव से कांटा निकाल कर देखों।।

Courtesy : Shanti Dharmi Patrika

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