तो इसलिए बटुकेश्वर दत्त का अंतिम संस्कार भगत सिंह की समाधि के साथ हुआ : Azad Indian

प्रिय पाठकवृन्द! प्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त ने लिखा है-



‘‘ भगतसिंह मुख्यतः विचार और युक्ति से परिचालित थे, पर आजाद में क्रांतिकारी सहजता थी। फिर भी जब वे एक जगह मिल गए, तो देखाा गया कि उनकी तरंगो की लम्बाई एक ही थी। वे एक-दूसरे के पूरक थे।


भगतसिंह और आजाद ऐसे मिले, जैसे वे किसी केन्द्राभिमुखी शक्ति से परिचलित हुए हों।


इन दोनो का मिलकर काम करने का युग क्रांतिकारी कचिन्तन और कार्य का सबसे उर्वर युग रहा।


फिर भी भगतसिंह और आजाद की महानता से हमें इतना चकाचैंध नहीं होना चाहिए कि हम दूसरे वीरों को भूल जाएँ। इनमें ऐसे-ऐसे लोग थे जैसे भगवतीचरण, राजगुरू, भगवानदास माहौर, वैशम्पायन, बटुकेश्वर दत्त, रूद्रनारायण, धन्वन्तरि, नन्दकिशोर निगत, भवानीसहाय इत्यादि।’’


क्रांतिवीर के इन शब्दों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत लेख में उन जीवन दानियों के विषय में लिखा जाएगा, जो किसी कारणवश इतना सम्मान नहीं पा सके, जिसके वे अधिकारी थे। बटुकेश्वर दत्त (बी0 के0 दत्त) भगत-आजाद के बेजोड़ साथी थे; उनका समूचा क्रांतिकारी सफर बेदाग रहा, उन्होंने संघर्ष में कोई कमजोरी नहीं दिखाई, समर्पित देशभक्त की भाँति अडिग रहे, मर-मिटने में किंचित मात्र भी कोताही न करके ध्येय निष्ठ क्रांतिपथ से भटके नहीं, पर हाय! जीवित साथियों ने भी उनके संदर्थ में कुछ व्यवस्थिति न लिख कर क्रांतिकारी परिदृश्य से गायब कर दिया। यह सत्य है कि काले पानी की यातना झेलने के बाद (1938 ई0) बटुकेश्वर दत्त माक्र्सवाद को त्याग आदर्श योगी को क्रांतिकारी के समकक्ष मानने लगे थे- दोनों मृत्यु से नहीं डरते।


वीर भगतसिंह के नाम पर माक्र्सवाद का प्रचार करने वालों ाके यह नहीं भूलना चाहिए कि मतभेद होने के कारण लाला लाजपतराय ने भगतसिंह व सुखदेव के लिए अपने बंगले के फाटक सदा के लिए बन्द करवा दिए थे, पर भगतसिंह ने उनकी मौत का बदला लेने के लिए जान की बाजी लगा दी थी।

जबकि बटुकेश्वर दत्त तो सुधीव विद्यार्थी के शब्दो में –

‘‘केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर भगतसिंह के साथ अपनी गिरफतारी देने के बाद जेल के भीतर साम्राज्यवाद के विरूद्ध उन (बटुकेश्वरदत्त) का संघर्ष एक अजेय क्रांतिकारी का ही रहा। पूरे जेल जीवन में वे भगतसिंह के साथ कदम से कदम मिलाकर अडिग होकर चले। भगतसिंह की जेल के भीतर की संघर्ष-गाथा के वे सबसे बडे़ साथी थे।’’

राजनैतिक कैदियों को सुविधा दिलाने के लिए भगतसिंह ने जो भूख ड़ताल की थी, उसमे बटुकेश्वर दत्त पूरे समय साथ चले। शिववर्मा के अनुसार-‘‘ यह भूख हड़ताल 63 दिन चली। भगतसिंह और दत्त ने तीन से उपर पार किये।’’

‘माॅडर्न रिव्यु’ के सम्पादक रामानन्द चटोपाध्याय ने अपने सम्पादकीय में ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ को अराजकता और खून-खराबे का प्रतीक कहा तो 23 दिसम्बर 1929 को भगतसिंह और दत्त ने दल की तरफ से जवाब दिया था। इस पत्र में अपना पक्ष स्पष्ट करत हुए उन्होंने क्रांति का अर्थ समझाया। 19 अक्तूबर 1929 को भी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के सभापतित्व में होने वाले ‘पंजाब छात्र युनियन’ के दूसरे अधिवेशन के नाम – भगत-दत्त ने अपनी तरफ से सन्देश भेजा था। बाद में दत्त को अलग कर दिया गया। जब वे सैलभ (मद्रास) जेल में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे थे, तो भगतसिंह राजगुरू व सुखदेव को फाँसी की सजा सुनाई गई, तब अक्तूबर 1930 में भगतसिंह ने दत्त के नाम पत्र लिखा था। भगतसिंह तो मुक्ति पथ के पथिक बन गये, पर दत्त को मद्रास से अंडमान (कालापानी) भेज दिया गया। फिर दिल्ली (1937) और 1938 में रिहाई हुई, पर बंगाल, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने पर पुनः पकड लिये गये और स्वतंत्रता के बाद हजारी बाग जेल (बिहार) से रिहा हुए।

डाॅ रघुबीर सिंह के शब्दों में –

‘‘यह है बटुकेश्वर दत्त के आद्योपात क्रांतिकारी संघर्ष की प्रेरणादायक कहानी जो आंदोलन के इतिहास के अहम पन्नो में दर्ज है, भगतसिंह कालीन संघर्ष की साक्षी और देश की साझा विरासत है, जिसे पढ़ और सुनकर सीना गर्व से तन जाता है।’’


आजादी के बाद दत्त जी गृहस्थी बन गये, पर आर्थिक तंगी से परेशान रहे। उन्होंने कई व्यवसायिक प्रयोग किये, पर विफल रहे। उन्की पत्नी ने विद्यालय में नौकरी की। भगतसिंह की मा इन्हें अपना धर्मपुत्र मानती थी। जब माँ को पता चला कि उनका धर्मपुत्र कैंसर से पीड़ित होकर दिल्ली अस्पताल में पड़ा है, तो वह अपने रूग्ण एवं अशक्त शरीर के कुछ चिन्ता न करते हुए देश के कोने-कोने में पहुँचती और स्वागत सम्मान में प्राप्त द्रव्य राशि चुपचाप इस महान सपूत को लाकर दे देती थी। अस्पताल में उनकी देखभाल के लिए भी वहीं रह। 20 जुलाई 1965 को देश के गौरव ने अंतिम विदाई ली।

इनकी अंतिम इच्छा के अनुसार इनका अंतिम संस्कार राजगुरू सुखदेव और भगतसिंह की समाधि के पास। हुसैनीवाला में किया गया। भगतसिंह की माँ तब भी साथ थी। श्रीमती विरेन्द्र कौर सन्धू के अनुसार 1968 में जब भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव के समाधि-तीर्थ का उद्घाटन किया गया, तो इस 86 वर्षीया वीर जननी ने उनकी समाधि पर फूल चढाने से पहले श्री बटुकेश्वर दत्त की समाधि पर फूलों का हार चढ़ाया था। श्री दत्त की यही इच्छा तो भी कि मुझे भगतसिंह से अलग न किया जाए। और भगतसिंह के नामलेवा क्या कर रहे हैं।

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