अमर शहीद पं. राम प्रसाद बिस्मिल : क्रांतिकारियों के नेता

बिस्मिल का जन्म 1897 ई0 मे तथा मृत्यु 19 दिसम्बर 1927 मे हुई। इन तीस सालों में से उन्होंने 11 वर्ष क्रांतिकारी कार्यों मे व्यतीत किए । इस अल्पायु मे उनकी बुद्धि परिपक्व हो चुकी थी। कांग्रेस ने तो पूर्ण स्वराज्य का नारा 1929 ई0 मे लाहौर मे दिया था। लेकिन बिस्मिल ने तो यह नारा 1927 में ही दे दिया था। पं0 रामप्रसाद बिस्मिल को उत्तर प्रदेश मे सशस्त्र क्रांतिकारी पत्र का मुख्य संगठन कर्ता नेता को काकोरी कांड में प्राण दण्ड सशस्त्र क्रांतिकारी देशभक्त का सर्वोच्च पुरस्कार ्रदान किया गया था। पं0 रामप्रसाद बिस्मिल ने देशवासियों से अपनी अंतिम बात के रूप में एक आत्मकथा गोरखपुर की जेल में फांसी की कोठरी में फांसी पर झूलने के तीन दिन पहले तक अधिकारियों की निगाह बचाकर लिखी थी। उन्ही के शब्दों आज 16 दिसम्बर 1927 को निम्नलिखित पंक्तियों का दल्लेख कर रहा हूँ। जबकि 19 दिसम्बर 1927 को साढे छः बजे प्रातःकाल इस शरीर को फांसी पर लटका देने की तिथि निश्चिित हो चुकी है। अतएव नियत समय पर इहलीला संवरण करनी ही होगी।
बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा का प्रारम्भ इन पंक्तियों से किया है। ‘‘क्या ही लज्जत है कि रग-रग से यह आती है सदा दम न ले तलवार जब तक जान बिस्मिल मे रहे।’’ उन्होने आत्मकथा का अंत इन शब्दो से किया है।
मरते बिस्मिल रोशन लहरी अशफाक अत्याचार से, होंगे पैदा सैंकडो उनके रूधिर की धार से।
19 दिसम्बर 1927 को वन्दे मातरम् तथा भारतमाता की की जय कहते वे फांसी के तख्ते की ओर बढे चलते समय वे कह रहे थे।
मालिक तेरी रजा रहे और तुही तू रहे।
बाकी न मै रहु, न मेरी आरजू रहे।।
जब तक की तन मे जान रगों मे लहू रहें।
तेरी ही जिक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।।
ततः पश्चात उन्होने अगें्रजी मे कहा- मैं ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हुँ। फिर वे फांसी के तख्ते पर चढे और इस वेद मंत्र का उच्चारण करते हुए के फंदे से झुल गये।
ओइम् विश्वानिदेव सर्वित दुरतानि परासुवः यद भद्रं तन्त्रासुवः।
17 वर्ष पूर्व बिस्मिल ने फांसी की कोठरी मे अपनी आत्मकथा रजिस्टर के आरम्भ के कागजों पर पैंसिल से लिखी थी। अन कागजों को उन्होने एक सहद्रय जेल वार्डन के द्वारा गौरखपुर के कांग्रेसी नेता दशरथ प्रसाद द्विवेदी के पास भेजा। पूरी आत्मकथा जेल से तीन किश्तो मे बाहर आई। अंतिम किश्त तो फांसी के एक दिन पहले ही आई थी। बिस्मिल भी आत्मकथा अन्त मे गण्ेाशशंकर विद्यार्थी के पास पहुँची जिन्होने उसका प्रकाशन किया। बिस्मिल ने जिस कोठरी मे आत्मकथा को लिखा उस कोठरी का वर्णन भी उन्ही के शब्दो मे प्रस्तुत हेै-
सराकर की इच्छा है कि मुझे घोटघोट कर मारे। इसी कारण इस गर्मी मे साढे तीन माह बाद अपील की तिथि निश्चिित की है। साढे तीन माह तक इस पंक्षी के पिंजरे से भी खराब कोठरी में मैं मुरझा गया। यह मैदान के बीच बनी हे। किसी भी प्राकर की छाया नही हे प्रातः आठ बजे से साय आठ बजे तक सुर्य देवता अपने पुर्ण वेग से इस रेतीली भूमि पर अग्नि वर्षण करता रहता है 9 फुट लम्बी 9 9 फुट चौडी कोटरी मे केवल 6 फुट लम्बा तथा 2 फुट चोैडा एक ही द्वार है पीछे की तरफ भूमि के 8 फुट पर एक दो फुट लम्बी तथा एक फुट लम्बी तथा एक फुट चौडी ही खिडकी हे। इसी कोठरी मे योजन स्नान मल मूत्र त्याग तथा शयनादि होता है। मच्छरो का भंयकर प्रकोप है। बडे यत्न से रात्रि मे वायुश्किल तीन अथवा चार घण्ठक निद्र आती हेै। किसी किसी दिन सारी रात मे मात्र एक या दो घण्टे ही सोकर निर्वाह करना पडता है।
बडे त्याग का जीवन है मिट्टी के बर्तनों मे भोजन । ओढने बिछाने को दो कम्बल । साधना के सभी साधन है। प्रतयेक क्षण शिक्षा दे रहा हेै- अंतिम समय के लिए तैयार हो जाओं। परमत्मा का भजन करो।
मुझे तो इस कोठरी मे आनंद आ रहा है। इसमें यह संयोग मिला है कि मै अपनी कुछ अंतिम बात देशवासियों को अर्पण कर दूँ। सम्भव है इसके अध्ययन से किसी आत्मा का भला हो जाये।’’
अपनी पुज्य माता के विषय मे लिखते हुए बिस्मिल की कलम ने कमाल ही कर दिया-
इस संसार मे मेरह केवल एक तृष्णा है। एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों के सेवा कर अपने जीवन को सार्थक बना देता लेता हे। किंतु यह इच्छा पूर्ण होती हूई दिखाई नही देती और तुमको मेरी मृत्यु का दुखःद पूर्ण संवाद सुनाया जायेगा । मां मुझे विश्वास है तुम यह समझकर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता, भारत माता की सेवा मे अपने जीवन की बलिवेदी को भेट कर गया तथा उसने तुम्हारी कोख को कलंकित नही किया। अपनी प्रतिज्ञा से हठ रहा । जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जायेगा तब उसके किसी भी पृष्ठ पर उज्जवल अक्षरों मे तुम्हारा भी नाम लिखा जायेगा । जन्म दात्री वर दोकि मेरा दिया किसी प्रकार भी विचलित न हो।
वास्तव मे बिस्मिल की माता ने अपूर्व धैर्य का परिचय दिया था । उनकी फांसी के एक दिन पहले क्रांतिकारी शिववर्मा तथा अपनीे पति के साथ बिस्मिल से मिलने गई थी। उनको देखकर बिस्मिल रो पडे। किंतू उनकी माता की आंखो मे आँसु नही थे। वे उच्चे स्वर मे बोली- मै तो समझती थी कि मेरा बेटा बहादुर है जिसके नाम से अंग्रेज सरकार भी कांपती है। मुझे नही पता था कि वह मौत से डरता है यदि तुम्हें रोकर ही मरना था तो व्यर्थ इस काम मे आये। बिस्मिल ने आश्वासन दिया। आँसू मौत के डर से नही आये वरन् मां के प्रति मोह के थे।
उनकी आत्मकथा के पठन से विदित होता है कि बिस्मिल निर्भयता हठता लगन तथा नेतृत्व मे अपनी अभूतपूर्व छााप छोडी है उनमे मानवता कूट7कूट कर भरी हुई थी। यदि वे विश्वासघात करते तो आसानी से जेल ये भाग सकते थे। किंतु उन्होने ऐसी नही किया। उन्होंने भागने के अवसरो को अनेको बार छोड दिया। जबकि बिस्मिल जेल मे बंद थे अब समय जयपुर के वयोवृद्ध देवीशकंर तिवाडी के पिता पं0 चम्पालाल जेलर थे वहां से भागने के संबंध मे बिस्मिल लिखते साहब पं0 चम्पालाल की कृपा से जेल मे सुविधाये थी। हम जेल मे है या किसी रिश्तेदार के यहां हम जेल वालों से बात पर ऐठ जाते थे। पं0 जी हमें अपनी संतान से भी अधिक प्यार करते थे। हममें से किसी को भी कोई जरा सा भी कष्ट होता था तो पं0 चम्पालाल जी बडे व्यथ्ति होते थे। मेरी दिनचर्या तथा नियमों का पालन देखकर पहरे के सिपाही अपने गुरू से भी ज्यादा सम्मान देते थे। प्रतयेक सिपाही मेरा देवता की तरह पूजन करते थे। बैरक के लम्बादार मेरे सहारे पहरा दिया करते थे। जब जी मे आता सोते जब इच्छा होती बैठ जाते क्योकि वे जानते थे कि यदि सिपाही अथवा जमादार उनको अधीक्षक के समक्ष पेश करना चाहेंगे तो मैं बचा लूंगा। सिपाही तो कोई चिंता ही नही करते थे। चारों और शांति थी। केवल इतना प्रयास करना था कि लोहे की कटी हुई सलाखो को काट कर इस प्रकार जोड रखा था कि जेल के अधिकारी प्रात सांय घुमकर सब और दृष्टि डालकर चले जाते थे पर किसी को भी कटी सलाखों की जानकारी नही होती थी मै जेल से भागने का विचार करके उठा ध्यान आया कि जिन पं0 चम्पालाल जी की कृपा से सब आनंद भोगने की स्वतंत्रता जेल मते मिली है उनका बुढापे मे जबकि थोडा सा समय ही पेंशन में बाकी है क्या उन्ही के साथ विश्वास घात नही किया । अब भी नही करूँगा। उस समय मुझे भली भाँति मालूम हो गया था कि मुझे फांसी होगी। परन्तु उपरोक्त बात सोचकर भागना स्थगित कर दिया।
अधिकारियों ने पूरे जोर शब्दो मे प्रलोभन देकर रूसी क्रांति के संबंध मे भी जानकारी देना थोडी सी सजा दी जायेगी प्रलोभन भी दिया गया कुछ समय बाद आपको विलायत भेज दिया जायेगा। किंतु बिस्मिल ने झूठ बोलने की अपेक्षा फांसी के फंदे को पसन्द किया।
बिस्मिल की आत्मकथा किस प्रकार जेल से बाहर आई इसमे अनपढ अथवा कम पढे लिखे वार्डरो को श्रेय ज्यादा जाता है । क्योकि बिस्मिल को फांसी की सजा दी उन पर अत्याधिक कठोर पहरा होता था। चौबीस घंटे पहरें दारो की नजर होती थी। कोैन जानता था कि कितने पहरेदार बदले होंगे तथा न जाने कितने जेल अधिकारियो के सहयोग से इस आत्मकथा को लिखा गया था। इस सभी कर्मचारियों ने बिना किसी यश की आशा के शहीद क्रांतिकारर देश भक्तों के प्रति स्वभाविक श्रद्धा तथा प्रेम के कारण जोखिम उठाया। वस्तुत वे अज्ञात देश भक्त भी हमारी श्रद्धा के पात्र है
ईश्वरार्य प्रधानाध्यापक
आर के पूरम सैक्टर सात
म0 न0 979 नई दिल्ली

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