मैं कैसा ‘मरण’ चाहता हूँ। which type of Death I Like I ----------------I Vishwa Guru Bharat I Hindi Sahitya I Indian Sahitya I


लोग कहते हैं कि मरना कोई नहीं चाहता। हाथ-पैरों से लाचार अंगविहीन, अंधत्व का जन्म से शिकार, भीषण रोगों से ग्रस्त किसी भी मनुष्य से पूछिए कि क्या वह मरना चाहता है? उत्तर ‘न’ में ही मिलेगा। उसे भी मालूम है कि एक न एक दिन मरना पडे़गा। फिर भी वह अतीव पीड़ा-कष्ट भोग कर भी क्यों जीना चाहता है, यह अद्भुत पहेली है और मैं, जिसके सब अंग प्रत्यंग 76 वर्ष की आयु में शिथिल हो गये हैं पर सुचारू रूप से कार्यरत हैं, अपनी मृत्यु की प्लानिंग करना चाहता हूँ। शायद अब बहुत देर हो गई है।
    संत प्रवर तुलसीदास जी कह गये हैं- हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि-हाथ। अगर ईश्वर-जीवन मरण अपने पास नहीं रखता तो कोई उसे मानता ही नहीं। जीवात्मा के पास कर्म करने में स्वतंत्र अनादि आत्मा तो है, पर शरीर तो परमात्मा द्वारा निर्मित है। जिसने दिया है उसे लेने का भी पूरा-पूरा अधिकार है, यह मानना होगा। उसके द्वारा जीवन देने ओर लेने की प्रक्रिया एक बड़ी विचित्र कठिन और आंशिक रूप से सुलझी हुई पहेली है। वेदवेत्ता इस प्रक्रिया को कर्मफल संज्ञा देते हैं। यह अत्यन्त पेचीदा प्रश्न है, इसलिए फिलहाल यही छोड़ता हूँ। मुझै तो मरण ‘मृत्यु’ के विचार ने जकड़ रखा है।
    1 जनवरी से 20 जनवरी 2014 तक देश क राजधानी दिल्ली में चालीस मनुष्य, सड़कों पर ठण्ड में सिकुडकर मर गये। यह संख्या एक दिन में टी0 वी0 चैनलों द्वारा प्रसारित की गई संख्या है। संपूर्ण दिल्ली में ही पूर्ण शीतऋतु में कितनी मृत्यु, भूख-पयास, रहने का अभाव से हुई ज्ञात नहीं है। सम्पूर्ण उत्तर भारत की बात तो छोडि़ए। इसका प्रसारण 25 जनवरी 2014 की शाम को हुआ। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या को। इसी समय राष्ट्रपति महोदय देश की गौरव गाथा गा रहे थे। सोचिए, जिस देश को स्वतंत्र हुए 66 वर्ष व्यतीत हो गए हों, उसके नागरिक इस तरह बेमौत मर जावें। कुत्ते की मौत को सबसे बुरी मौत माना जाता है। इन मौतो को किस श्रेणी में डालोगे? ऐसी मौत की भयावहता मेरी कल्पना से भी बाहर है।
    जून 2013 में अलकनन्दा द्वारा केदारनाथ मंदिर व उसके चारों और एक बड़े भू-भाग में भयंकर बाढ़ व भूस्खलन ने हजारों भक्तांे-अभक्तों को लील लिया। वे बह गये या मिट्टी में दब गये।
    मंदिर के गर्भगृह में जहाँ देवता विराजमान थे, लाशों व मलबे का अम्बार लग गया। मैं ीवचम ंहंपदेज ीवचम. आशा के विपरीत आशा रख रहा था कि अब तो मूर्तिपूजक हिन्दुओं को संदेह से परे, विश्वास हो गया होगा कि जो जाग्रत देवता स्वयं अपने को नहीं बचा सका वह उनका कल्याण, उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति, उनके पापों से मुक्ति व जन्म मरण से मुक्ति कैसे दिला पावेगा?
    केदारनाथ ही नहीं, समीपस्थ ग्रामवासियों को, होटल मालिकों, दुकानदारों को यही चिन्ता थी कि केदारनाथ मंदिर का यथाशीर्घ पुनरूद्धार हो जावे तो सब कार्य पूर्ववत् चालू हो जावेंगे। मंदिर के ट्रस्टियों को भी चिन्ता थी कि जिस देवता की बदौलत एक लाख रूपया प्रतिदिन चढ़ावा मिलता है, उसका शुद्धिकरण यथाशीघ्र होना चाहिए। शुभ-मुहूर्त में पूजा-अर्चना प्रारंभ हुई और उसी दिन शाम को मलबे से निकाली गई 263 लाखों के शवदाह (कैसे?) का भी समाचार आ गया। जिन्दगी और मौत साथ-साथ चलती है।
    नहीं, मैं नहीं चाहुँगा कि केदारनाथ के गर्भगृह में, देवता के समक्ष मिट्टी में दबा पड़ा मिलूँ।  मुझे केदारनाथ के दर्शन का पुण्य नहीं चाहिए।
    समझदार लोग केदारनाथ ही नहीं, सोमनाथ, मथुरा और काशी-विश्वनाथ आदि के मंदिरो के विध्वंस और पुर्ननिर्माण की कथा अच्छी तरह जानते हैं। ये सब पूजा स्थल निरीह, गरीब, अशिक्षित धर्मभीरू हिन्दुओं के ही नहीं पूर्ण सम्पन्न, अति-सम्पन्न, बौद्धिक रूप से अत्यन्त प्रबुद्ध हिन्दु भक्तों के आस्था-स्थल पूर्णतया व्यापारिक-केन्द्र हैं। यह ऐसा व्यापार है जिसमंे बिना विशेष इनवेस्टमेण्ट (पूँजी लगाए) लाभ ही लाभ है; हानि की तो मीलों तक कोई संभावना ही नहीं)
    25 दिसम्बर 13 से 1 जनवरी 14 तक नासिक (महाराष्ट्र) के समीप स्थित शिरडी साई बाबा के मंदिर में 17 करोड़ का चढ़ावा आया। प्रत्येक वर्ष गणेश चतुर्थी के पर्व पर मुम्बई के लालबाग के राजा व सिद्धिविनायक मंदिर में करोड़ों का चढ़ावा आता है। वैष्णोदेवी, तिरूपति के बालाजी आदि की बात नहीं कर रहा हूँ। पुट्टपार्थी के सत्यसाई बाबा के आकस्मिक निधन (स्वघोषित मृत्यु तिथि से पूर्व) के पश्चात् उनके व्यक्तिगत कमरे से करोड़ों का कैश, स्वर्ण आदि मिला था। मैं समझना चाहता हूँ कि क्या केदारनाथ मंदिर का शिव (ईश्वर) इन सब मंदिरों ईश्वरों से कम शक्तिशाली, कम प्रभावकारी था? प्राकृतिक तबाही में जब वह स्वंय न बच सका और न ही अपने हजारों भक्तों को बचा सका तो क्या गारण्टी है कि ऐसी ही किसी भीषण त्रासदी में इन मंदिरों के भगवान अपने अपने भक्तों को बचा पाएगें? नहीं, नहीें मैं इनकी शरण में जाने पर, ऐसी ही किसी भीषण दुर्घटना में मरना नहीं चाहूँगा।
    मेरी जानकारी के अनुसार सबसे पीड़ादायक मृत्यु कैन्सर रोगी की होती हैै। व्यक्तिगत अनुभव तो मुझे है नहीं पर एक व्यक्ति को यह दारूण कष्ट भुगतते देखा है। चिकित्सकों को बहुत अच्छी तरह पता है कि इस बीमारी का कारण ज्ञात नहीं है। प्रत्येक केस में शल्य-क्रिया और कैमोथैरेपी द्वारा शत-प्रतिशत रोगमुक्त होने की संभावना नहीं है। कैंसर ग्रस्त रोगी की मृत्यु होगी और अत्यन्त पीड़ादायक मृत्यु। टर्मिनल स्टेज में मरीज को ‘अफीम’ (पैथेडिन) की बड़ी बड़ी खुराके दी जाती है जिससे नींद बेहोशी में वह पीड़ा का अनुभव नहीं कर सके। नहीं, मैं ऐसी मौत नहीं चाहता।
    एक अत्यन्त आत्मीय परिचित हैं। वर्षो से उन्हें जानता हूँ। कार्यालय में मुझसे वरिष्ठ थे। घर-परिवार में मेरा व मेरे परिवार का बहुत आना जाना रहा है। लगभग 85 वर्ष की आयु है। सदाबहार पत्नी पिछले दस वर्षो से बिस्तर पर पड़ी है। आंशिक रूप से मानसिक संतुलन खो चुकी है। दस वर्षो से पत्नी का मलमूत्र साफ करके, भीषण मानसकि त्रासदी झेलते हुए अब उनका मानसिक संतुलन बिगड़ रहा है। जब भी मिलते हैं, यही कहते हें कि खुल्लर! यह सब क्या है? किन कर्मो जी सजा ये पा रही है और किन कर्मो की मैं? पिछले 45 वर्षो की दीर्घ अवधि में उनके या उनके परिवार के किसी भी सदस्य के किसी दोष या बुराई की बात कभी नहीं सुनी। ईश्वर न जाने किस दारूण मृत्यु की ओर इन दोनों प्राणियों को तिल-तिल घसीट रहा है। कर्मफल के समर्थक इसे पूर्व जन्म नहीं अनेक जन्मों के दोषों-पापों की सजा ही बतायेंगे। मैं, पूछना चाहता हूँ कि क्या मनुष्य का एक जन्म ही संपूर्ण पापों की सजा के लिए पर्याप्त नहीें होता? मैं ऐसी मृत्यु भी कभी नहीं चाहुँगा।
    मुझे दुर्घटना में अकस्मात् हुई मौत भी नहीं चाहिये। आजकल सम्पन्न वृद्धों को भी अकेले ही बुढ़ापा झेलना पड़ता है। ये ही आजकल लोभी, लुटेरों के आसान टारगेट बने हुए है। बड़ी बेरहमी से इनकी हत्या की जाती है, लूट-पाट की जाती है। हमारी भी यही स्थिति है। रात को बाथरूम जाते हुए अनेक बार ख्याल हो आता है कि क्या हम भी इसी निर्मम पीड़ादायक मृत्यु के शिकार तो नहीं होंगे।
    प्रश्न यह उठता है कि क्या मैं या अन्य कोई व्यक्ति मौत का चुनाव कर सकते हैं? शत-प्रतिशत सही उत्तर जीवात्मा के पास नहीं परमात्मा के पास मिलना चाहिय, क्योंकि जीवन-मरण उसके हाथ में हैं। ऋषि मुनियों ने वर्षो कड़ी तपस्या की, साधना की और परमात्मा से पूछा- हे प्रभु! ज्ञान विज्ञान, मनुष्य के कल्याण के सब रास्ते तो आपने बता दिये, जीवन मरण के प्रश्न को भी हल कर दीजिए। प्रभु ने कहा- देख और समझ। संसार के समस्त प्राणियों की रचना का कारण मैं हूं। आत्मा को मानव का चोला भी मैंने ही दिया है। अन्य जीवधारियों की आत्मा को सामान्य बना दिया, परन्तु बुद्धि-विवेक नहीं दी। मानव को ही बुद्धि ज्ञान-विेक और कर्म की स्वतंत्रता प्रदान कर दी। लगभग अपनी समस्त शक्तियों का उपभोग करने का रास्ता दिखा दिया पर जीवन-मरण अपने हाथ में रखा, क्योंकि मुझे मालूम था कि मानव नाम का यह प्राणी बुद्धि और स्वतंत्रता दोनों का ही दुरूपयोग अधिक और सदुपयोग कम करेगा। मनुर्भव के उपदेश को वह अनुसना ही करेगा।
    देखो ना, जिस व्यक्ति ने जीवन में उन्नति करने में दूसरों का अहित नहीं किया। भयंकर विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य को छोड़कर कोई कुटिल मार्ग नहीं अपनाया। यदि जीवन में उसकी सफलता चमत्कारित नहीं रही फिर भी वह पूर्णतया संतुष्ट होकर जीवन यापन करता रहा। नष्ठावान रहा। आत्मिक सुख और शांति उसकी जीवन संगिनी बनी रही। ऐसा ही व्यक्ति सार्थक जीवन जीता है और ऐसा ही व्यक्ति ‘जीवम शरदः शतम्’ की प्रार्थना करने का हक रखता है और उसे ही प्रभु शांतिपूर्वक मृत्यु की महानिन्द्रा को सौंप देता है।
    ऐसे व्यक्ति का निर्माण किया जाता है, अपने आप नहीं बनता। उसे बचपन से ही नहीं, वरन् गर्भाधान से ही संस्कारवान बनाया जाता है। उसे सत-पथ पर चलने की प्रेरणा, योग्यता और सामर्थ्य प्रदान किया जाता है। सौ वर्ष के लम्बे जीवनकाल में अथवा जितने वर्षो का उसको जीवन मिला हो, समस्त झंझावातों को झेलकर जब वह जीवन के अवसान की ओर बढ़ता है, तब उसे पूर्णता का सुख मिलता है और शांति की मृत्यु मिलती है। सोते-सोते, बात करते-करते प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। लोग कहते है कि एक भला आदमी चला गया। मेरी माँ और बाऊजी तथा परिवार के दो तीन सदस्य इसी तरह अलविदा हुए। हे प्रभु! मुझे भी ऐसा ही मरण देना।
    नोट:- 28 जनवरी 2014 को यह लेख मैंने लिखा था। अभी टाईप भी नही कराया था और कुछ रूक कर पत्रिकाओं को भेजने का विचार कर रहा था पर मुझे क्या पता था कि ठीक 14 दिन बाद ही नियन्ता मृत्यु का आभास करा देगा। दिनांक 11 फरवरी 2014 सुबह 10ः30 बजे ब्रेन हेमरेज का पहिला अटैक हुआ। जगभग अचेवावस्था में यथाशीर्घ न्यूरोफिजियशन के पास ले जाया गया। परिवार क्लिनिक, ग्वालियर में तीन दिन आई0 सी0 यू0 में रखकर घर भेज दिया गया। पुनः दिनांक 24 फरवरी 2014 को दुबारा ब्रेन हेमरेज हो गया। घर से ही पूर्ण अचेतावस्था में परिवार क्लिनिक ग्वालियर ले जाया गया। शाम 8 बजे ब्रेन ऑपरेशन किया गया। पूर्व रात 1 बजे से शाम 8 बजे यानि 19 घण्टे नियन्ता ने अपनी गोद में रखा, फिर शल्य चिकित्सक न्यूरोसर्जन डॉ0 जे0 पी0 गुप्ता के माध्यम से वापिस लौटा दिया - पूरी मानसिक और शारीरिक शक्तियों के साथ। अब मेरे समक्ष प्रश्न यह है कि क्यों लौटाया? जीवन के समस्त दायित्वोें को निर्वहन कर चुका था। महर्षि का ‘‘तर्पण’’ भी कर दिया था और शेष जीवन ‘अर्पण’ कर दिया था- (दो पुस्तकंे लिखकर)। मांग भी लिया था कि कैसा ‘मरण’ चाहता हूँ पर नियन्ता के बुलावे का इंतजारथा। नियन्ता ने बुलावा भेजा भी पर रास्ते से लौटा दिया। पौराणिक होता तो लिखता- यमदूत को लगा होगा कि गलत व्यक्ति को ले जा रही हूँ इसलिए वह वापिस छोड़ गया। मुझे पहिले पौराणिक सावित्री-सत्यवान् की कथा पर विश्वास नहीं था, पर अब विश्वास हो रहा है।
    एक दिन हम पति पत्नी बात कर रहे थे। मैंने पत्नि से कहा- हम दोनों की बहुत आयु हो चुकी है। उस समय 75 वर्ष-73 वर्ष। दोनों में से कोई भी जा सकता है। अगर तुम चली जाओगी तो मेरा तो बिल्कुल कबाड़ा हो जाएगा, क्योंकि मेरे व्यक्तित्व में लोच नहीं है, ढूँढ हूँ। पत्नी ने उत्तर दिया - मेरे जाने से तुम्हारा आधा नुकसान होगा, क्योंकि मैं तुम्हारी अर्द्धान्गिनी हूँ और तुम्हारे जाने से तो मेरा सब कुछ चला जाएगा। पत्नी को यह बात जब मुझे सदैव याद रहती है तो विद्याता को क्यों नही? क्या उसके लिए ही मुझे लौटाया है? विद्याता का लिखा किसने पढ़ा है?



Courtesy :
Shanti Dharmi Masik Patrika
अभिमन्यु कुमार खुल्लर

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