भारत में अपना वजूद खोती हुई हाथों से बनी वस्‍तुएं

आधुनिकता का प्रवाह के कारण बहुत जल्‍द ही हस्‍तशिल्‍प भारत से अपना वजूद खोती हुई नजर आ रही है

आए दिन आज कल मेलो में या बाजारों में हाथ से बनी वस्‍तुओं के प्रति लोगों का लगाव बहुत कम होता जा रहा हैा यह देखकर मन बहुत आहत होता है, जोकि एक चिंता का विषय हैा भारत हमेशा से ही अपनी प्राचीन संस्‍क़ति और हस्‍तशिल्‍प के लिए दुनिया भर में जाना जाता हैा लेकिन पिछले कुछ समय से आधुनिकता के प्रवाह के कारण हस्‍तशिल्‍प अथवा हाथोे से बनी वस्‍तुएं गायब होती जा रही हैा आजकल विदेशों से आ रहे प्‍लास्टिक केे सामान और खिलौनो ने, हस्‍तशिल्‍प बाजार को एकदम खत्‍म कर दिया हैा  जैसे मटके की जगह प्‍लास्टिक से बने कैम्‍फरो ने ले ली है, दिए की जगह जगमगाती लाईटो ने ले ली है, वो लकडी के खिलौने जिससे हम बचपन में खेला करते थे, उसकी जगह विडियो गेम्‍स अथवा प्‍लास्टिक से बने खिलौनो ने ले ली हैा आधुनिकता ठीक है लेकिन अपनी संस्‍क़ति और अपनी हस्‍त्तशिल्‍प कलाओं की बलि देकर नए चीजों को अपनाना कही से भी जायज नही लगता। अभी कुछ दिन पहले मैं हमारे पास में ही लगने वाले गुगा मैडी के मेले में घूम रहा था जहां मैंने देखा की हाथ से बनी वस्‍तुओं और खिलौनो के प्रति किसी का भी लगाव नही जबकि उसके स्‍थान पर मशीनो से बनी प्‍लास्टिक की वस्‍तुए सबको अपनी और आकर्षित कर रही थीा हस्‍तशिल्‍िपियों की कला का इस प्रकार अनादर देखकर मन बहुत आहत हुआ। क़प्‍या इनकी मदद कीजिए। भारतीय संस्‍क़ति और हस्‍तशिल्‍प कलाओं को इतने लम्‍बे समय तक कायम रखने में इन सबका बहुत बडा हाथ है । 



क्‍या है हस्‍तशिल्‍प

हस्तशिल्प सामान्य तौर पर हाथों से की गई शिल्पकारी या कारीगरी को कहा जाता है। कुशल लोग सरल उपकरणों से विभिन्न सामान बनाते हैं जिसमें उपभोक्ता सामान से लेकर कागज, लकड़ी, मिट्टी, शेल्स, चट्टान, पत्थर, धातु आदि के सजावटी सामान शामिल हैं। इन वस्तुओं को हस्तशिल्प कहा जाता है, क्योंकि ये पूरी तरह से हाथ से और बिना किसी मशीन की मदद से बनाए गए होते हैं। 

हस्‍तशिल्‍प की लोकप्रियता

भारत अपनी जातीयता के लिए जाना जाता है। जहां तक कला और संस्कृति की बात है भारत दुनिया के सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध देशों में से है। देश का ये सौभाग्य रहा है कि यहां बहुत कुशल कारागर रहे हैं। उन्होंने भारतीय हस्तशिल्प को पूरी दुनिया में मशहूर किया है। कई ग्रामीण लोग आज भी कला के रचनात्मक वस्तुएं बनाकर अपनी आजीविका कमाते हैं।

 लेकिन अब कुछ समय से हस्‍तशिल्‍प से आजीविका करने वाले लोग मुश्किल ही गुजर बसर कर रहे है । इसकी लोकप्रियता खत्‍म होती नजरआ रही है। हाथ से बनी वस्‍तुओं के बदले लोग आजकल मशीनी चीजों को ज्‍यादा तवज्‍जू देते नजर आते है ।




इस तकनीकी युग के चलते  कुम्‍हार बेघर हुए जा रहे है

आधुनिक युग में तकनीकी क्षेत्र में आई क्रांति ने विभिन्न 

क्षेत्रों में हस्तशिल्प से जुडे़ कारीगरों को बेरोजगारी के मुहाने

पर लाकर खड़ा कर दिया है। इन्हीं में से एक हैं मिट्टी के

 बर्तन बनाने का कार्य जिसमें हाथ से मिटटी के बर्तन

बनाकर भारी संख्या में लोग बेचा करते थे और यही उनके

 परिवार के भरण पोषण का एक मात्र कुटीर उद्योग था।
आधुनिक तकनीकी युग में अधिकांश कार्य मशीनों से होने 

एवं अधिकांश घरों में मिट्टी के बर्तनों की जगह रेफ्रिजरेटरों

व वाटर कूलरों ने ले ली है। जिसके परिणाम स्वरूप मिट्टी के बर्तन बनाकर बेचने वालों के समक्ष रोजी रोटी का संकट उत्पन्न हो गया है। हालत यह है कि इस कार्य से जुड़े श्रमिक प्रति वर्ष ही हजारों की संख्या में शहरों की ओर पलायन 

कर रहे हैं। बताते चलें क आज से डेढ़ दशक पूर्व तक गर्मी का मौसम शुरू होने से पहले इस कार्य से जुड़े कुंभकार घड़ा, 

नांद, मटका, सुराही, कुल्हड़ जैसे मिट्टी के बर्तनों का निर्माण कार्य तेज कर देते थे। क्योंकि गर्मी का मौसम आते ही

इनकी मांग शुरू होती थी। सर्वाधिक घड़ों की बिक्री चैत्र नवरात्रि में होती थी, क्योंकि चैत्र नवरात्रि की अष्टमी को किसानों

द्वारा दो घड़ों में स्वच्छ जल भरने के बाद उन पर रस्सी रखकर पूजा अर्चना करते हैं। इतना ही नहीं इन घरों के नीचे 

चार-चार मिट्टी के ढेले लगाते जाते हैं। जिनको अगले दिन देखकर वर्ष भर की वर्षा का अनुमान लगाया जाता था,

मगर आधुनिकता की आंधी ने इस व्यवसाय को इस कदर बर्बाद किया है कि अब हाथ से बने हुए मिट्टी के बर्तनों

की बाजार मांग दिनों दिन घटती जा रही है। इस रोजगार से जहां इस कार्य से जुड़े लोगों को अच्छी खासी आमदनी हो

जाया करती थी। वहीं आज इन्हें पूंछने वालों की संख्या भी घटती जा रही है। शादी विवाह जैसे मांगलिक कार्यो में कुल्हड़

व नांदों की खासी बिक्री होती थी। बाजार में इनकी मांग घटने से कुंभकार भी अब कार्य से नाता तोड़ते जा रहे हैं और

यही हाल रहा तो यह हस्त शिल्प कला बीते जमाने की बात हो जाएगी। शासन प्रशासन द्वारा भी इस कला व रोजगार

के प्रोत्साहन के लिए कोई कार्य नहीं किया जा रहा है।  गर्मियों में ठंडे पानी  के लिए लोग घड़ों का उपयोग करते थे,

इस कारण खासी बिक्री होती थी और परिवार का ठीक प्रकार से भरण पोषण

भी जाता था। मगर जबसे फ्रिज व वाटर कूलर उपकरण बाजार में आये हैं, तबसे घड़ों की मांग घट गई है और 

यह व्यवसाय अब परिवार के भरण पोषण लायक नहीं रहा।
धातु या फाइबर से बने बर्तनों की अपेक्षा मिट्टी के बर्तन अधिक प्रभावी व स्वास्थ्य के ही लिए अच्छे नहींं हैं बल्कि

पर्यावरण के लिए बहुत फायदेंमंद है

क़प्‍या हाथ से बनी वस्‍तुओं का इस्‍तेमाल कीजिए 

जय पंडित


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